अध्याय 6

1 वहाँ से निकलकर वह अपने देश में आया, और उसके चेले उसके पीछे हो लिए। 2 सब्त के दिन वह आराधनालय में उपदेश देने लगा; और बहुत लोग सुनकर चकित हुए और कहने लगे, “इसको ये बातें कहाँ से आ गई? और यह कौन सा ज्ञान है जो उसको दिया गया है? और कैसे सामर्थ्य के काम इसके हाथों से प्रगट होते हैं? 3 क्या यह वही बढ़ई नहीं, जो मरियम का पुत्र, और याकूब और योसेस और यहूदा और शमौन का भाई है? और क्या उसकी बहनें यहाँ हमारे बीच में नहीं रहतीं?” इसलिए उन्होंने उसके विषय में ठोकर खाई। 4 यीशु ने उनसे कहा, “भविष्यद्वक्ता का अपने देश और अपने कुटुम्ब और अपने घर को छोड़ और कहीं भी निरादर नहीं होता।” 5 और वह वहाँ कोई सामर्थ्य का काम न कर सका, केवल थोड़े बीमारों पर हाथ रखकर उन्हें चंगा किया। 6 और उसने उनके अविश्वास पर आश्चर्य किया और चारों ओर से गाँवों में उपदेश करता फिरा। 7 और वह बारहों को अपने पास बुलाकर उन्हें दो-दो करके भेजने लगा; और उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया। 8 और उसने उन्हें आज्ञा दी, कि “मार्ग के लिये लाठी छोड़ और कुछ न लो; न तो रोटी, न झोली, न पटुके में पैसे। 9 परन्तु जूतियाँ पहनो और दो-दो कुर्ते न पहनो।” 10 और उसने उनसे कहा, “जहाँ कहीं तुम किसी घर में उतरो, तो जब तक वहाँ से विदा न हो, तब तक उसी घर में ठहरे रहो। 11 जिस स्थान के लोग तुम्हें ग्रहण न करें, और तुम्हारी न सुनें, वहाँ से चलते ही अपने तलवों की धूल झाड़ डालो, कि उन पर गवाही हो।” 12 और उन्होंने जाकर प्रचार किया, कि मन फिराओ, 13 और बहुत सी दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल मलकर* उन्हें चंगा किया। 14 और हेरोदेस राजा ने उसकी चर्चा सुनी, क्योंकि उसका नाम फैल गया था, और उसने कहा, कि “यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला मरे हुओं में से जी उठा है, इसलिए उससे ये सामर्थ्य के काम प्रगट होते हैं।” 15 और औरों ने कहा, “यह एलिय्याह है*”, परन्तु औरों ने कहा, “भविष्यद्वक्ता या भविष्यद्वक्ताओं में से किसी एक के समान है।” 16 हेरोदेस ने यह सुन कर कहा, “जिस यूहन्ना का सिर मैंने कटवाया था, वही जी उठा है।” 17 क्योंकि हेरोदेस ने आप अपने भाई फिलिप्पुस की पत्‍नी हेरोदियास के कारण, जिससे उसने विवाह किया था, लोगों को भेजकर यूहन्ना को पकड़वाकर बन्दीगृह में डाल दिया था। 18 क्योंकि यूहन्ना ने हेरोदेस से कहा था, “अपने भाई की पत्‍नी को रखना तुझे उचित नहीं।” (लैव्य. 18:16, लैव्य. 20:21) 19 इसलिए हेरोदियास उससे बैर रखती थी और यह चाहती थी, कि उसे मरवा डाले, परन्तु ऐसा न हो सका, 20 क्योंकि हेरोदेस यूहन्ना को धर्मी और पवित्र पुरुष जानकर उससे डरता था, और उसे बचाए रखता था, और उसकी सुनकर बहुत घबराता था, पर उसको आनन्द से सुनता था। 21 और ठीक अवसर पर जब हेरोदेस ने अपने जन्मदिन में अपने प्रधानों और सेनापतियों, और गलील के बड़े लोगों के लिये भोज किया। 22 और उसी हेरोदियास की बेटी भीतर आई, और नाचकर हेरोदेस को और उसके साथ बैठनेवालों को प्रसन्‍न किया; तब राजा ने लड़की से कहा, “तू जो चाहे मुझसे माँग मैं तुझे दूँगा।” 23 और उसने शपथ खाई, “मैं अपने आधे राज्य तक जो कुछ तू मुझसे माँगेगी मैं तुझे दूँगा।” (एस्ते. 5:3,6, एस्ते. 7:2) 24 उसने बाहर जाकर अपनी माता से पूछा, “मैं क्या माँगूँ?” वह बोली, “यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का सिर।” 25 वह तुरन्त राजा के पास भीतर आई, और उससे विनती की, “मैं चाहती हूँ, कि तू अभी यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का सिर एक थाल में मुझे मँगवा दे।” 26 तब राजा बहुत उदास हुआ, परन्तु अपनी शपथ के कारण और साथ बैठनेवालों के कारण उसे टालना न चाहा। 27 और राजा ने तुरन्त एक सिपाही को आज्ञा देकर भेजा, कि उसका सिर काट लाए। 28 उसने जेलखाने में जाकर उसका सिर काटा, और एक थाल में रखकर लाया और लड़की को दिया, और लड़की ने अपनी माँ को दिया। 29 यह सुनकर उसके चेले आए, और उसके शव को उठाकर कब्र में रखा। 30 प्रेरितों ने यीशु के पास इकट्ठे होकर, जो कुछ उन्होंने किया, और सिखाया था, सब उसको बता दिया। 31 उसने उनसे कहा, “तुम आप अलग किसी एकान्त स्थान में आकर थोड़ा विश्राम करो।” क्योंकि बहुत लोग आते जाते थे, और उन्हें खाने का अवसर भी नहीं मिलता था। 32 इसलिए वे नाव पर चढ़कर, सुनसान जगह में अलग चले गए। 33 और बहुतों ने उन्हें जाते देखकर पहचान लिया, और सब नगरों से इकट्ठे होकर वहाँ पैदल दौड़े और उनसे पहले जा पहुँचे। 34 उसने उतर कर बड़ी भीड़ देखी, और उन पर तरस खाया, क्योंकि वे उन भेड़ों के समान थे, जिनका कोई रखवाला न हो; और वह उन्हें बहुत सी बातें सिखाने लगा। (2 इति. 18:16, 1 राजा. 22:17) 35 जब दिन बहुत ढल गया, तो उसके चेले उसके पास आकर कहने लगे, “यह सुनसान जगह है, और दिन बहुत ढल गया है। 36 उन्हें विदा कर, कि चारों ओर के गाँवों और बस्तियों में जाकर, अपने लिये कुछ खाने को मोल लें।” 37 उसने उन्हें उत्तर दिया, “तुम ही उन्हें खाने को दो।” उन्होंने उससे कहा, “क्या हम सौ दीनार की रोटियाँ मोल लें, और उन्हें खिलाएँ?” 38 उसने उनसे कहा, “जाकर देखो तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं?” उन्होंने मालूम करके कहा, “पाँच रोटी और दो मछली हैं।” 39 तब उसने उन्हें आज्ञा दी, कि सब को हरी घास पर समूह में बैठा दो। 40 वे सौ-सौ और पचास-पचास करके समूह में बैठ गए। 41 और उसने उन पाँच रोटियों को और दो मछलियों को लिया, और स्वर्ग की ओर देखकर धन्यवाद किया और रोटियाँ तोड़-तोड़ कर चेलों को देता गया, कि वे लोगों को परोसें, और वे दो मछलियाँ भी उन सब में बाँट दीं। 42 और सब खाकर तृप्त हो गए, 43 और उन्होंने टुकड़ों से बारह टोकरियाँ भर कर उठाई, और कुछ मछलियों से भी। 44 जिन्होंने रोटियाँ खाई, वे पाँच हजार पुरुष थे। 45 तब उसने तुरन्त अपने चेलों को विवश किया कि वे नाव पर चढ़कर उससे पहले उस पार बैतसैदा को चले जाएँ, जब तक कि वह लोगों को विदा करे। 46 और उन्हें विदा करके पहाड़ पर प्रार्थना करने को गया। 47 और जब सांझ हुई, तो नाव झील के बीच में थी, और वह अकेला भूमि पर था। 48 और जब उसने देखा, कि वे खेते-खेते घबरा गए हैं, क्योंकि हवा उनके विरुद्ध थी, तो रात के चौथे पहर के निकट वह झील पर चलते हुए उनके पास आया; और उनसे आगे निकल जाना चाहता था। 49 परन्तु उन्होंने उसे झील पर चलते देखकर समझा, कि भूत है, और चिल्ला उठे, 50 क्योंकि सब उसे देखकर घबरा गए थे। पर उसने तुरन्त उनसे बातें की और कहा, “धैर्य रखो : मैं हूँ; डरो मत।” 51 तब वह उनके पास नाव पर आया, और हवा थम गई: वे बहुत ही आश्चर्य करने लगे। 52 क्योंकि वे उन रोटियों के विषय में न समझे थे परन्तु उनके मन कठोर हो गए थे। 53 और वे पार उतरकर गन्नेसरत में पहुँचे, और नाव घाट पर लगाई। 54 और जब वे नाव पर से उतरे, तो लोग तुरन्त उसको पहचान कर, 55 आस-पास के सारे देश में दौड़े, और बीमारों को खाटों पर डालकर, जहाँ-जहाँ समाचार पाया कि वह है, वहाँ-वहाँ लिए फिरे। 56 और जहाँ कहीं वह गाँवों, नगरों, या बस्तियों में जाता था, तो लोग बीमारों को बाजारों में रखकर उससे विनती करते थे, कि वह उन्हें अपने वस्त्र के आँचल ही को छू लेने दे: और जितने उसे छूते थे, सब चंगे हो जाते थे।