अध्याय 1

1 मुझ प्राचीन की ओर से उस प्रिय गयुस के नाम, जिससे मैं सच्चा प्रेम रखता हूँ। 2 हे प्रिय, मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि जैसे तुम आत्मिक उन्नति कर रहे हो, वैसे ही तुम सब बातों में उन्नति करो और भला चंगा रहो। 3 क्योंकि जब कुछ भाइयों ने आकर, सत्य में तुम्हारी स्थिरता की गवाही दी*, जिस पर तुम सच्चाई से चलते हो, तो मैं बहुत ही आनन्दित हुआ। 4 मुझे इससे बढ़कर और कोई आनन्द नहीं, कि मैं सुनूँ, कि मेरे बच्चे सत्य के मार्ग पर चलते हैं। 5 हे प्रिय, जब भी तुम भाइयों के लिए कार्य करो और अजनबियों के लिए भी, तो विश्वासयोग्यता के साथ करना। 6 क्योंकि उन्होंने कलीसिया के सामने तुम्हारे प्रेम की गवाही दी है। यदि तुम उन्हें उस प्रकार से विदा करोगे जो परमेश्‍वर के लोगों के लिये उचित है* तो अच्छा करोगे। 7 क्योंकि वे मसीह के नाम के लिये निकले हैं और अन्यजातियों से कुछ नहीं लेते। 8 इसलिए हम विश्वासियों को ऐसे लोगों का स्वागत करना चाहिए, जिससे हम भी सच्चाई के पक्ष में उनके सहकर्मी बनें। 9 मैंने कलीसिया को कुछ लिखा था; पर दियुत्रिफेस जो उनमें बड़ा बनना चाहता है, हमें ग्रहण नहीं करता। 10 इसलिए यदि मैं आऊँगा, तो उसके कामों की, जो वह करता है सुधि दिलाऊँगा, कि वह हमारे विषय में बुरी-बुरी बातें बोलता है; और इस से भी संतुष्ट न होकर, न केवल स्वयं भाइयों को ग्रहण करने से इंकार करता है परन्तु उन्हें जो ग्रहण करना चाहते हैं, मना करता है और कलीसिया से निकाल देता है। 11 हे प्रिय, बुराई के नहीं, पर भलाई के अनुयायी हो। जो भलाई करता है*, वह परमेश्‍वर की ओर से है; पर जो बुराई करता है, उसने परमेश्‍वर को नहीं देखा। 12 दिमेत्रियुस के विषय में सब ने वरन् सत्य ने भी आप ही गवाही दी: और हम भी गवाही देते हैं, और तू जानता है, कि हमारी गवाही सच्ची है। 13 मुझे तुम्हें बहुत-सी बातें लिखनी थी; परन्तु स्याही और कलम से नहीं लिखना चाहता। 14 पर मुझे आशा है कि तुम से शीघ्र भेंट करूँगा: तब हम आमने- सामने बातचीत करेंगे: 15 तुझे शान्ति मिलती रहे। यहाँ के मित्र तुम्हें नमस्कार करते हैं और वहाँ हमारे सभी मित्रों के नाम ले लेकर उन्हें नमस्कार कह देना। (2 यूह. 1:12)